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|गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण
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परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान अपनी माया का अपनी योगमाया का अधिष्ठान करके मनुष्य रूप से सृष्टि में प्रकट होते हैं और संसार - चक्र की स्थानविच्युता धुरी को पुन: सुव्यवस्थित कर, अनेकता में एकत्व का अर्थात् भिन्न - भिन्न रूप से दिखनेवाले व्यक्तियों का मूलस्वरूप एक ही है, यह भान होने के लिए सुविधा प्रदान कर देते हैं । इस बात को सिद्ध करना किसी भी हिंदू के लिए आवश्यक नहीं जान पड़ता ।
विभिन्न युगों की तथा उनके विभागों की कालावधि में तत्कालीन मनुष्यप्राणियों के तथा इतर सृष्टि के विकास के लिए अर्थात् इस सृष्टिरूपी गहन योगचक्र की समता बनाए रखने के लिए, जिन - जिन गुणधर्मों के अवलंबन की आवश्यकता होती है, उन - उन गुणधर्मों के पदार्थ पाठरूप से उन - उन युगों के विशेष ध्येयपुरुष का अवतार होता है, और उसी के साथ उनकी सहधर्मचारिणी प्रकृतिदेवी के स्वरूप का निर्माण भी होता ही है । इन विभिन्न युगों के विभिन्न अवतारों में वस्तुत: कोई भेद नहीं । परंतु अवतारों में विभिन्न गुणधर्मों के प्राधान्य के कारण - माया के अंतर्पट के कारण उनके समग्र स्वरूप का ग्रहण हम लोग नहीं कर सकते । इसी से हमें उनमें भेद दिख पड़ता है । इस युग के संसार के मार्गदर्शक अधिष्ठाता के रूप में श्रीकृष्णस्वरूप आप ही अपने विराटस्वरूप में निर्माण हुआ है और उसने लोक - कल्याणार्थ अन्य प्राणियों के समान सारे प्राकृतिक बंधनों को केवल अपनी इच्छा से ही स्वीकार कर लिया है । अंतर इतना ही है कि जहां अन्य प्राणी अपनी भावनाओं के फलस्वरूप बाध्य होकर बंधन के परे रहते हुए ही लोक - कल्यार्ण मार्ग प्रदर्शन के हेतु ही उसका निर्वाह करते हैं ।
जिस प्रकार जेल में कैदी भी होते हैं और जेलर भी होता है, परंतु जेल के नियम सबको एक से पालन नहीं करने पड़ते । उनके कामों की देख - रेख के लिए दूसरे अनेक छोटे - बड़े अधिकारी भी होती हैं, इन सब मनुष्यों में अपराधी कैदी को छोड़कर शेष सभी अपनी - अपनी मर्यादा में रहते हैं और मुख्य जेलर अपनी इच्छानुसार जेल के बाहर - भीतर घूम - फिर सकता है । इसी प्रकार अवतारी पुरुष इस प्राकृतिक देह में आकर भी बंधन से जीवात्माओं के बंधन से परे रहकर अपनी इच्छानुसार स्वंतत्रतापूर्वक उसका निर्वाह करता है ।
इस प्रकार सृष्टि के कल्याण के निमित्त स्वयं ईश्वर के या उसके किसी प्रतिनिधि के मनुष्य देह में प्रकट होने की मान्यता भिन्न - भिन्न रूप से दुनिया के सभी धर्मों में पायी जाती है । यह मान्यता सत्य और स्वाभाविक है । इसी मान्यता के अनुसार वर्तमान युग के अधिष्ठाता ध्येय श्रेष्ठपुरुष श्रीकृष्ण परमात्मा हैं । उन श्रीभगवान का भौतिक तथा दैवी जीवन उनके आध्यात्मिक उपदेशों के साथ सुसंगत होकर, विकासक्रम के प्रवाह में पड़े हुए, काम - क्रोधादि षट् रिपुरूप प्रबल राक्षसी तरंगों में उछलते डूबते हुए तथा अविद्या के अंधकार में सत्य और श्रेयस्कर मार्ग को ढूंढ़ने के लिए मथते हुए किसी भी जीवात्मा के लिए दीपस्तम्भका काम दे सकता है ।
सृष्टि में उत्पन्न हुई कोई भी वस्तु स्वयं अपने लिए नहीं होती, क्योंकि अपने से अपना भोग हो ही नहीं सकता । वायु, जल, तेज, पत्थर, मिट्टी, वनस्पति तथा जीवसृष्टि में कोई भी वस्तु या व्यक्ति अपने को ही अपना भोग नहीं बना सकती । वनस्पतियों का उपयोग उनके अपने लिए नहीं है । फल, फूल, पत्ती तथा लकड़ी इनमें से कोई भी वृक्ष के उपयोग में नहीं आते, या तो वे दूसरी वनस्पति के लिए उत्पादक बनते हैं या जीव - सृष्टि का रक्षण अथवा पोषण करते हैं । जीवसृष्टि में जीवात्मा मनुष्य कोटी ही श्रेष्ठ है ।
तब क्या यह मनुष्य प्राणी आप अपने ही लिए हो सकता है ? नहीं, नहीं, वह स्वतंत्र नहीं है । वह भी इसे संसाररूपी महायोग - यज्ञ में आहुतिस्वरूप है । तथापि दूसरे जीवों की अपेक्षा उसे विवेक बुद्धि की देन अधिक मिली है और वह पुरुषार्थ से महायज्ञ में सहायक अथवा बाधक हो सकता है ।
जब जीवात्मा अविद्या के आवरण से ममत्व का आरोप कर अपने व्यक्तिगत आहुति - स्वरूप को भूलकर स्वयं होता (आहुति देनेवाला) बन बैठता है तब वह महायज्ञ का बाधक बनकर अपने लिए तथा अपने संसर्ग में आने वाले सबके लिए दु:ख उत्पन्न करता है । इसी प्रकार जब उसका पुरुषार्थ महायज्ञ के अनुकूल होता है तब वह अपने लिए और अपने संसर्ग में आनेवालों के लिए सुख उत्पन्न कर सकता है । इस तरह जब तक जीवात्मा का व्यक्ति भाव कायम रहता है और वह इसी भाव से पुरुषार्थ करता है, तब तक उसे फुटबाल की तरह सुख - दु:ख की ठोकरें खाते इधर - उधर भटकना ही पड़ता है । वह आवागमन के चक्र ले छुटकारा नहीं पाता । परंतु जब इस व्यक्ति का समष्टि में लय होकर आत्मौपम्य, सर्वात्मभाव सिद्ध हो जाता है तभी वह सुख - दु:ख के द्वंद्वों से छूटकर, जन्म - मरण के चक्र से मुक्त होकर परम निर्वाण गति को पाता है ।
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