पूर्वकाल में दम नामक एक राजा थे, उनके पुत्र का नाम राज्यवर्धन था ।
वे भलीभांति पृथ्वी का पालन करते थे । उनके राष्ट्र में धन - जन प्रतिदिन
बढ़ रहा था । उनसे अन्य राजा और संपूर्ण राष्ट्र अत्यंत प्रसन्न और संतुष्ट
थे । उनका विवाह राजा विदूरथ की मानिनी नाम की कन्या के साथ हुआ था । किसी
समय मानिनी राजसेवकों के समक्ष ही राजा के सिर पर तेल लगा रही थी, उसी समय
उसकी आंकों से आंसू गिर पड़े । वे अश्रुकण जब राजा के शरीर पर गिरे, तब
उन्होंने मानिनी की ओर देखा और पूछा - ‘मानिनी ! क्यों रो रही हो?’ पर उसने
कुछ भी उत्तर न दिया । राज्यवर्धन ने पुन: मानिनी से जिज्ञासा की - ‘तुम
क्यों रो रही हो?’
तब उस सुमध्यमा ने कहा - ‘राजन ! मुझ मंदभागिनी
के शोक का कारण आपके केशों के मध्य एक श्वेत केश है ।’ यह सुनकर राजा सभी
उपस्थित राजगण और पौरजनों के सम्मुख हंसते - हंसते पत्नी कहने लगे - ‘तुम
रोओ मत ! सभी प्राणियों में जन्म, वृद्धि और परिणाम आदि विकार लक्षित होते
हैं, इसके लिए रोना व्यर्थ है ।’
‘हमने सभी वेदों का अध्ययन हजारों
यज्ञों का अनुष्ठान, पुत्र का उत्पादन, अतिशय दुर्लभ विषयों का तुम्हारे
साथ रहकर उपभोग, भलीभांति पृथ्वी का पालन तथा बाल्यावस्था और युवावस्था के
योग्य सभी कार्यों का संपादन किया है । अब वृद्धावस्था में हमारा वन में
निवास करना कर्तव्य है ।’ तब समीपस्थ अन्य राजाओं और पुरवासियों ने राजा को
प्रणाम कर विनयपूर्वक कहा - ‘राजन ! आपकी पत्नी का रोना तो निरर्थक है,
किंतु हम लोगों अथवा सभी प्राणियों के लिए यह रोने का समय उपस्थित हो गया
है । यदि आप वन जाएंगे तो हमलोग भी साथ में ही प्रस्थान करेंगे । इसके
फलस्वरूप पृथ्वी पर रहने वालों की निश्चय ही श्रौत - स्मार्त सभी क्रियाएं
समाप्त हो जाएंगी ।’ पर राजा ने वन में जाने का दृढ़ निस्चय कर दैवज्ञों से
पुत्र के राज्याभिषेक के लिए शुभ मुहूर्त के विषय में पूछा ।
वे
बोले - ‘राजन् ! आप प्रसन्न हों और कृपा करके पहले जैसे हम लोगों का रक्षण
करते थे, वैसे ही रक्षण करें । भूप ! आपके वन जाने से सभी लोग दु:खी हो
जाएंगे । इसलिए राजन् ! आप वैसा ही कार्य करें जिससे सभी प्राणी कष्ट का
अनुभव न करें । हम लोग आपसे शून्य इस सिंहासन को देखना नहीं चाहते ।’ इस
प्रकार उन लोगों तथा अन्यान्य ब्राह्मणों, पुरवासियों, राजाओं, वनवास की
इच्छा का परित्याग न कर - ‘यमराज कभी भी क्षमा न करेगा’ यही उत्तर दिया ।
जब राजा वृने अपने वनवास के विचार का परित्याग नहीं किया तब ब्राह्मण,
वृद्ध, पुरवासीगण, मंत्री, सेवकवर्ग सब मिलकर विचार करने लगे कि अब क्या
किया जाएं । धर्मप्रबर राजा के प्रति प्रेम के कारण उन लोगों ने विचार कर
यह निश्चय किया कि हमलोग भलीभांति ध्यानरत होकर तपस्या के द्वारा भगवान
भास्कर की आराधना में सबको अतिशय प्रयत्नशील देखकर सुदाम नामक गंधर्व ने
आकर कहा - ‘कामरूप नामक विशाल पर्वत पर सिद्धों के द्वारा प्रतिष्ठित एक
‘गुरु - विशाल’ नामक वन में है । वहां जाकर संयतचित्त से सूर्य देव की
आराधना करने से सभी कामनाओं की प्राप्ति होगी ।’
गंधर्व के इस
वाक्य को सुनकर वे सभी अरण्य में गये । वहां अतिशय भक्तिपूर्वक तीन मास तक
उनके स्तव पाठपूर्वक पूजा करने पर भगवान भास्कर संतुष्ट हुए । इसके बाद
भगवान भास्कर ने स्वयं दुर्निरीक्ष्य होने पर भी अपने दिव्य मण्डल से चलकर
और उदयकालीन मण्डल से समन्वित होकर उन आराधकों को दर्शन दिया तथा वर मांगने
के लिए कहा । तब प्रजाओं ने कहा - ‘भास्करदेव ! यदि आप हमारी भक्ति से
प्रसन्न हैं तो हमलोगों के राजा राज्यवर्धन निरोग, विजितशत्रु, पूर्णकोष और
स्थिर यौवन होकर दस सहस्त्र वर्ष तक जीवित रहें ।’ ‘तथास्तु’ कहकर भगवान
भास्कर वहीं अंतर्हित हो गये और प्रजाजन भी वर - लाभ से संतुष्ट होकर राजा
के पास चले आये ।
सहस्त्रांशुकी आराधना और उनसे वर लाभ की जो कुछ
घटना हुई थी, प्रजाओं ने राजा से कह सुनायी । उसे सुनकर नरेंद्र पत्नी
मानिनी बहुत ही प्रसन्न हुईं, परंतु राजा ने इस संबंध कुछ भी नहीं कहा और
वे बहुत देर तक विचार करते रहे । फिर मानिनी हृष्ट अंत:करण से पति से कहा -
‘महीपाल ! आप बढ़ी हुई आयु से अब सब प्रकार की वृद्धि प्राप्त करें । आप
निरोग और स्थिर होकर आज से दस सहस्त्र वर्ष जीयेंगे, फिर भी आप क्यों
प्रसन्न नहीं हो रहे हैं ?’
यह सुनकर राजा ने कहा - ‘मैं अकेला हस
सहस्त्र वर्ष तक जीऊंगा, किंतु तुम नहीं जीओगी । तब क्या तुम्हारे वियोग से
मुझे दु:ख नहीं होगा ? पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और अन्यान्य प्रिय बांधवों
की मृत्यु को देखकर क्या मुझे कम दु:ख होगा ? जिन्होंने मेरे लिए अपनी
शिराओं को जलाकर तपस्या की , वे मर जाएंगे और मैं जीवित रहकर सुख - भोग
करूंगा, क्या यह मेरे लिए धिक्कार की बात नहीं है ? मानिनी ! मुझे जो दस
सहस्त्र वर्षों की आयु मिली है, यह मेरे लिए आपत्ति है । इससे कुछ भी
अभ्युदय नहीं हुआ है । मैं आज से उसी पर्वत पर जाकर संयत - चित्त से
निराहार रहकर भानुदेव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करूंगा । वरानने ! जिस
प्रकार मैं उनके प्रसाद से स्थिर यौवन और निरामय होकर दस सहस्त्र वर्ष
जीऊंगा, उसी प्रकार मेरी समस्त प्रजा, भृत्य, तुम, कन्या, पुत्र, पौत्र,
प्रपौत्र, सुहृद् आदि भी जीवित रहें । भगवान भास्कर जब तक ऐसा अनुग्रह न
करेंगे और जबतक मेरे प्राण निकल नहीं जाएंगे, तब तक मैं उसी पर्वत पर
निराहार रहकर तपश्चरण करूंगा ।’
इसके बाद सपत्नी के नरपति ने
पूर्वोक्त पर्वत - स्थित मंदिर में जाकर भास्कर देव की आराधना करना प्रारंभ
कर दिया । निराहार रहने से दिन दिन जिस प्रकार राजा कृश होने लगे, वैसे ही
मानिनी भी कृश होने लगी । दोनों को शीत, वायु और धूप को सहने का अभ्यास हो
गया तथा दोनों को उग्र तपस्या में निरत हो गये । इस प्रकार सूर्यदेव की
आराधना और तपस्या करते हुए एक वर्ष से भी अधिक काल व्यतीत हो गया । अंत में
सूर्यदेव प्रसन्न हुए और दोनों की अभिलाषा के अनुसार समस्त भृत्य, पुत्र,
पौत्र आदि के लिए दस सहस्त्र वर्षों की आयु का वर प्रदान किया । तदंनतर
राजा के साथ राजधानी में लौट आये और प्रसन्न चित्त से धर्मानुकूल प्रजापालन
करते हुए दस हजार वर्षों तक राज्य शासन करते रहे ।